Wednesday 28 November 2012

मास्टर का भाई



सुबह अरण्य को झुमरू, बड़े-बड़े बालों वाले हमारे खूबसूरत कुत्ते, से बात करते देख मुझे अचानक पिछले साल की वो बात याद गई। दरअसल झुमरू से पहले हमारे पास तीन और कुत्ते पल चुके हैं लेकिन उनके अंततः इलाके में अक्सर गश्त लगाते बाघों का  निवाला बन जाने के बाद हमने तय किया था कि बस अब कोई कुत्ता नहीं पाला जाएगा।
लेकिन कुछ ऐसा हुआ कि दूर मुनस्यारी के गांव से झुमरू जी हमारे यहां गए। आशीष ने इस मौके को बच्चों में जिम्मेदारी, पशु-प्रेम जैसी कुछेक भावनाएं विकसित करने की कोशिश के तहत वन्या को झुमरू का पदासीन मास्टर नियुक्त करते हुए उसे समय पर खाना देने, घुमाने ले जाने जैसे काम उसके जिम्मे डाल दिए।
आशीष ने अपने खास अंदाज में दोनों बच्चों को बाकायदा एक महीने के कूं-कूं कर रहे झुमरू के सामने खड़ा कर उनकी जिम्मेदारियों की गंभीरता समझाते हुए एक लंबा और बोरियत भरा (सिर्फ मेरे लिए...!! वन्या और अरण्य तो पापा की हर बात का मज़ा ऐसे लेते हैं जैसे वो कानों में पड़ रहे शब्द नहीं मुंह में गिर रही चॉकलेट की धार हो) भाषण भी दिया। तब चार साल का रहा अरू भी पूरी तन्मयता से लेक्चर सुन रहा था और उसी गंभीरता से उसने पूछा 'दीदी झुमरू की मास्टर है लेकिन मैं क्या हूं?' वन्या ने खुद को मिल रहे इतने महत्वपूर्ण पद में अरू की दखलंदाज़ी को पूरी तरह से नकारते हुए बड़ी बहन वाली भाषा में कहा "अरे तू तो मेरा भाई है न इसलिए वो तूझे भी पहचान जाएगा।"
उसके बाद आलम यह था कि वन्या झुमरू के साथ गुजरने वाले हर पल में उसे यही समझाती रहती थी कि वह उसकी मास्टर है इसलिए उसे बड़े हो कर उसका कहना मानना होगा और इस मुहिम में अरू भी पूरी संजीदगी के साथ जुड़ा था।
एक सुबह देखती हूं कि झुमरू घर के पीछे वाले पेड़ के नीचे आराम से बैठा धूप सेक रहा है। मुश्किल यह थी कि धूप में बैठने के लिए अरू की पसंदीदा जगह भी वही थी। वन्या यानी झुमरू की मास्टर स्कूल जा चुकी थी अब झुमरू को वहां से कैसे हटाया जाएगा। अरू ने बिल्कुल वन्या वाली स्टाइल में मुंह में अंग्रेज़ी के अक्षर गोल-गोल घुमाते हुए बोला, "ज़ुमरु गो-गो" (ये पता नहीं कहां से और कैसे बना लेकिन दोनों बच्चों का विश्वास था कि कुत्ते सिर्फ अंग्रेज़ी ही समझते हैं)। 
मेरा बेचारा देहाती बच्चा अपनी सीमित अंग्रेज़ी की मदद दे कैसे उस स्थिति से जूझ रहा था वह देखने वाला नज़ारा था। बहुत बार 'गो-गो' की टेर के बाद भी उंनींदा सा झुमरू वहां से टस से मस नहीं हुआ तो अरू ने अपनी आवाज़ जरा ऊंची करते हुए उसे धमकाया, "झुमरू गो। उधर सिट। पता है आइ एम मास्टर ब्रदर।
सोचिए बेचारे अरू की हालत क्या हुई होगी जब "तू जानता नहीं कि मैं कौन हूं" की तर्ज़ पर 'मास्टर का ब्रदर' होने की हैसियत जतलाने के बाद भी झूमरू ने उसके लिए जगह छोड़ना तो दूर पूंछ तक हिलाने की ज़हमत नहीं उठाई।

आउच



 "मम्मा!"
"हूं"
"सुनो तो"
"क्या है"
"अरे सुनो तो बहुत मज़ेदार बात है।"
"बता फिर"
"पता है आजकल जब हम क्लास में आउच बोलते हैं तो पुष्पा दीदी (class teacher) कहती हैं अरे आउच मत बोलो नहीं तो रश्मि का भाई जाएगा।"
(रश्मि अरू की क्लास में पढ़ती है और उसका भाई अभी 15-20 दिन पहले ही पैदा हुआ है)
"क्यों, आउच बोलने से रश्मि का भाई क्यों आएगा?"
"अरे उसके भाई का नाम आउच है ना...इसलिए।"
"पागल है क्या किसी का नाम आउच होता है क्या?"
"जी.. हां होता है जीरश्मी ने ही पुष्पा दीदी को बताया था जी..।" (तीनों बार जी पर ज़्यादा जोर था)
अब तक चुपचाप नाश्ता कर रही वन्या ने मुझे समझाते हुए कहा, "मम्मा रश्मी के भाई का नाम आयुष है कि आउच।"

(चार पांच साल के बच्चों के मुंह से 'आयुष' का उच्चारण 'आउच' की कल्पना से मुझे हंसी गई। अरू के माथे पर गुस्से की लकीरें देख कर अंदाज़ा लग गया कि गल्ती हो गई है बॉस, मेरी हंसी से अरू के स्वाभिमान को ठेस पहुंची थी।)

"जी नही उसका नाम आउच है जी..अरू अब भी अड़ा है।
"आयुष है" वन्या ने दोहराया।
"आउच"
"आयुष"
"आउच"
"आयुष"
.....मम्मा अरू को देख लो लड़ाई कर रहा है...
"मम्मा पहले दीदी ने लड़ाई शुरु की...
....................वां..आं....वां.....मम्माआआ......

Wednesday 30 March 2011

वन्या पहुंची तीसरी में


वन्या तीसरी क्लास में पहुंच गई। सच्ची यकींन ही नहीं होता....इतनी जल्दी..!!! कल जब मैं उसका रिज़ल्ट ले कर घर लौट रही थी तो रास्ते में रहने वाली हिमानी ने पूछा, "भाभी, वन्या का रिज़ल्ट मिल गया ना? मैंने कहा, "हां, स्कूल से ही आ रही हूं।" हिमानी खुद आठवीं में है, पास हो जाएगी तो नवीं में जाएगी। हालांकि कद-काठी में वह वन्या से दो-तीन साल ही बड़ी लगती है।
"कौन सी डिविजन आई है वन्या की?" हिमानी ने उतावली से पूछा।
"बेटा उनके स्कूल में डिविजन नहीं आती, सब बच्चे पास होते हैं बस! " मेरा जवाब था।
हिमानी ने थोड़े शक के साथ मुझे देखा। नंबर कितने-कितने हैं दिखाओ तो...!! ऐसी उन्मुक्त जिज्ञासा के साथ किसी ओर के मसले में ताका-झांकी अब शायद गांवों में ही संभव है।
"अरे उनके यहां नंबर नहीं मिलते," मैंने उसे समझाया। अब तो बात सचमुच उसकी समझ से बाहर थी।
"फिर रिज़ल्ट में क्या देते हैं वो? उसने खालिस कुमाउंनी लहज़े में सवाल किया।
"इसमें लिखा है कि बच्चे ने इस साल क्या-क्या सीखा।" मैंने जवाब दिया।
"अच्च्छ्छा"!!! क्लास में किसी डिविजन और नंबरों के बिना वाले इस रिज़ल्ट में अब हिमानी की दिलचस्पी खत्म हो चुकी थी।
आगे बढ़ते हुए मैंने एक बार फिर से अहसास किया कि जहां हम रह रहे हैं वहां की मौजूदा शिक्षा सुविधाओं के बीच वन्या का जैसा स्कूल होना हमारे लिए एक वरदान की तरह है।

सात साल पहले जब हम यहां आए थे तो आसपास कोई ढंग का स्कूल नहीं था लेकिन तब वन्या महज कुछ महीनों की थी इसलिए यह मुद्दा हमारी तत्कालीन समस्याओं में नहीं था। खुशकिस्मती से जब तक वह स्कूल जाने लायक हुई एक स्थानीय गैर सरकारी संस्था चिराग यह स्कूल शुरु कर चुकी थी। इसका उद्देश्य आसपास के गांव के बच्चों को स्तरीय प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराना था। आठ-दस बच्चों के साथ शुरु हुए इस स्कूल में अब बच्चों की संख्या सौ के आसपास पहुंच चुकी है और बच्चों का पहला जत्था इस साल पांचवी क्लास में पहुंच गया है।

यहां मुझे जो बात खास लगती है वो यह है कि यह किसी बंधे-बंधाए ढर्रे पर अमल करने की बजाय बच्चों को रास आने वाले तरीकों की मदद से सिखाने पर विश्वास करता है। मूल रूप से तमिलनाडु के रहने वाले राजीव इस स्कूल को बहुत ही प्यार और समर्पण के साथ चलाते हैं जिन्हें सारे बच्चे और उनके अभिभावक राजीव दद्दा कह कर बुलाते हैं। राजीव की टीम में शामिल बाकी लगभग सारे दीदी और दद्दा लोग आसपास के ही हैं और अध्यापन के अपने काम के प्रति पूरी तरह से समर्पित हैं,और खुद भी हमेशा पढ़ाने के नए तरीखे सीखने लिए आतुर रहते हैं। ये लोग सारे बच्चों के साथ व्यक्तिगत रूप से जुड़ कर उनकी समस्याओं को सुनते-समझते और निदान करते हैं। साल भर यहां देश-विदेश से स्वैच्छिक कार्यकर्ता आ कर बच्चों के साथ नई-नई जानकारियां बांटते हैं, उन्हें पढ़ाते हैं। गांवों के खेती-किसानी वाले निम्न व मध्यम आयवर्ग के बच्चों के लिए इस स्कूल में पढ़ना अपने आप में एक अनुभव है। बच्चे स्कूल में ही क्यारियां बना कर चीजें उगाते हैं और उसके जरिए विज्ञान के नियमों को समझते हैं। बच्चे अपनी कुमाऊंनी संस्कृति का सम्मान करना सीखें, इसके लिए हफ्ते में एक दिन कुमाउंनी भाषा का होता है जिसमें बच्चों को कुमाउंनी में ही बात करनी होती है। इसमें वह अपनी भाषा के लोकगीत-लोककथा वगैरह सुनते-सुनाते हैं।

राजीव दद्दा महीने में एकाध बार अंग्रेजी या हिंदी की बढ़िया फिल्म या डॉक्युमेंट्री भी बच्चों को दिखाते हैं। सबसे दिलचस्प है यहां बच्चों को गणित पढ़ाने का तरीका जिसमें बच्चे बहुत मज़े-मज़े में गणित के मूलभूत सिद्धांत समझते हैं।

बहुत सारी और भी छोटी-छोटी बातें हैं जो इस स्कूल को खास बनाती हैं और एक अभिभावक के बतौर मेरे लिए ये बातें और भी खास हो जाती हैं क्योंकि मेरी बच्ची अपनी ज़िंदगी की शुरुआती तालीम यहां से हासिल कर रही है। उसे और उसके साथ के बच्चों में किताबें पढ़ने के प्रति दिलचस्पी, पेड़-पौधों के महत्व की समझ, पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता की नींव को देखते हुए मन आश्वश्त होता है कि ये बच्चे आगे चल कर भी डिविजन या नंबरों की होड़ में न पड़ कर सीखने पर ज़्यादा ध्यान देंगे।

बहरहाल इस पोस्ट का मकसद वन्या के तीसरी कक्षा यानी देवदार में जाने की सूचना इस ब्लॉग में दर्ज़ कराना था ताकि सनद रहे। वन्या की शुरुआती दो कक्षाएं हिसालू और काफल थीं उसी के नाम पर मैंने अपने ब्लॉग का नामकरण किया था। उसके बाद पहली कक्षा मेहुल (पेड़ की एक स्थानीय प्रजाति) और दूसरी कक्षा बुरांश थी और अब देवदार......

छोटे मियां यानी अरण्य को इस साल स्कूल में दाखिल कराने का इरादा हमने छोड़ दिया है। वह सवा तीन साल का हो चुका है और उससे एक साल छोटे उसके कुछ दोस्त इस साल से स्कूल जाने लगेंगे लेकिन हमारा मन नहीं मान रहा अभी उसे भेजने का। अगले साल देखा जाएगा...आपका क्या ख्याल है?

Wednesday 23 February 2011

बंसुरिया बजाओ न श्याम

आज सुबह बहुत मज़ेदार बात हुई। वन्या को स्कूल भेजने के बाद मैं सफाई वगैरह के काम में व्यस्त थी और अरू पास में ही बैठा कुछ चीजों के साथ खेल रहा था। कंप्यूटर पर पंडित छुन्नुलाल मिश्र अपनी विशिष्ठ शैली में स्वरलहरियां बहा रहे थे। थोड़ी देर बाद अरण्य ने मुझे एक लकड़ी की छोटी सी डंडी दिखाते हुए पूछा, "अम्मां इसकी बांसुली बना लूं?" मैंने कहा, "हां बना लो!"


दरअसल अरण्य को वाद्यों का बहुत शौक है उसका सपना है कि जब कभी उसका अकेले का कमरा होगा तो उसमें बड़ा वाला ड्रम, तबला, हारमोनियम, गिटार, सितार, खड़ताल और एक बड़ी वाली घंटी (ये पता नहीं वह किसके लिए कहता है) ज़रूर होना चाहिए। शायद हमारे यहां अक्सर होने वाले संगीत कार्यक्रमों में कलाकारों को देख कर ही उसका रुझान इस ओर हुआ हो। खैर तो जब वह लकड़ी को बांसुरी की तरह होंठ पर सजा कर मुंह से आवाज़ निकालने लगा तो मैं उसकी ओर देखने लगी। कुछ देर बजाने के बाद वह बोला, "अले....बजा तो रहा हूं!! वह कंप्यूटर की तरफ देख कर बोल रहा था। मिश्रा जी के बोल सुन कर मुझे समझ में आया कि माजरा क्या है। वह गा रहे थे "अब ना बजाओ बंसुरिया श्याम"। यहां पर 'न बजाओ- न बजाओ' को ही बार-बार दोहरा रहे थे जिसे अरू समझ रहा था कि जैसे वो मनुहार कर रहे हों कि "बजाओ ना...बजाओ ना ..बजाओ "। इसलिए अरू उनके अनुरोध का मान रखने के लिए बांसुरी बजाने की एक्टिंग कर रहा था।

मैंने हंसते-हंसते उसे बताया कि वो बजाने के लिए नहीं बल्कि ना बजाने के लिए कह रहे हैं। "नहीं वो कह रहे हैं बजाओ ना बजाओ ना" अरू अपनी बात पर अड़ा रहा। "अच्छा तुम ध्यान से सुनो तो तुम्हें समझ आ जाएगा, मैंने सलाह दी। अरू ने थोड़ी देर सुनने की कोशिश की और फिर बोला, "अले अम्मा, वो कह रहे हैं कि शाम को मत बजाओ..." अभी तो बजा सकते हैं। इस बार वह श्याम को शाम समझ बैठा था। उसके बाद मेरी जो हंसी फूटी क्या बताऊं और अरण्य चेहरे पर बड़ा सा प्रश्नवाचक चिन्ह लिए मेरी ओर ताके जा रहा था।

Saturday 19 February 2011

अरू का अंग्रेज़ी ज्ञान

अरण्य को बहुत अच्छा लगता है जब उसे किताबों से कहानियां पढ़ कर सुनाई जाएं लेकिन किताब दिखा कर ही अगर उसे अ-आ, क-ख, एबीसीडी या एकदोतीन सिखाने की कोशिश करो तो उसे पसंद नहीं आता। बहरहाल कुछ दिन पहले जब मैं अरण्य को चिढ़ाने के लिहाज़ से वन्या से कह रही थी कि, “देखो अरू को एबीसीडी भी नहीं आती, पता नहीं इसका स्कूल में एडमिशन कैसे होगा।
"आती है जी," तपाक से जवाब देते हुए अरू महाशय बोले कि मुझे पूरे दस तक एबीसीडी आती है।" उसके इस लाजवाब कर देने वाले जवाब के बाद मैं और वन्या एक दूसरे का मुंह देख रहे थे। ज़ाहिर है कि उसे पता था कि गिनती या एबीसीडी में से कोई चीज़ तो दस तक आनी चाहिए तो एबीसीडी ही सही।



कुछ दिन पहले हम अपने एक दोस्त के घर पर थे तो उनकी किशोरवय बेटी ने मुझसे आ कर पूछा, "मौसी अरू इतनी ज़ल्दी पढ़ना कैसे सीख गया?" मैंने जवाब दिया, “नहीं तो …वह तो अभी हिंदी अंग्रेज़ी अक्षर तक नहीं पहचान पाता...क्यों पूछ रही हो?
"अरे मैंने उसे बिस्कुट का पैकेट पकड़ाया तो बहुत ध्यान से रैपर पढ़ते हुए उसने कहा कि ये तो ब्रिटेनिया का गुडडे बिस्कुट है, मुझे कोई दूसरा दो। जब उसने पूछा कि तुम्हें कैसे पता तो उसने जहां रैपर पर लिखा था उसे हिज़्जों में बांट कर पढ़ने के अंदाज़ में बोला देखो लिखा है ना ब्रि...टे...नि...या।" फिर नीचे पढ़ कर दिखाया कि, "देखो ये लिखा है गु..ड...डे"। तीन साल के बच्चे को इतना आत्मविश्वास के साथ पढ़ते देख कर उसे यकीन नहीं हुआ इसलिए उसने उसने एक चॉकलेट निकाल कर पूछा, "अच्छा बताओ इसमें क्या लिखा है?" तुरंत जवाब आया, "कैडबरी डेयरी मिल्क"!


अरू की प्रतिभा से वह इतनी प्रभावित हो गई कि तुरंत मेरे पास पुत्र प्रशंसा हेतु पहुंच गई। तब मैंने उसके ज्ञान चक्षु खोलते हुए बताया कि, "बेटा जब एक दिन वन्या के पिता जी उसे तरह-तरह की चीज़ें बनाने वाली कंपनियों, उनके ब्रांड और उनके विज्ञापनों का गोरखधंधा समझाने के लिहाज से बिस्कुट, चॉकलेट, टॉफी और साबुन जैसी चीज़ों का उदाहरण दे रहे थे तो अरण्य जी भी ध्यान से सुन रहे थे। इसलिए अब घर पर जब भी कोई चीज़ आती है अरण्य वन्या से या किसी से भी उसका नाम बाकायदा कहां पर क्या लिखा है, करके पूछ लेते हैं और अक्सर दूसरों के सामने अपने इस ज्ञान का प्रदर्शन बहुत शानदार तरीके से करते हैं। हमारे घर पर क्योंकि टीवी नहीं है इसलिए जब भी कहीं दूसरी जगह टीवी देखने का मौका मिलता है तो अपनी जानी-पहचानी चीज़ों के विज्ञापन देख कर वह खुश हो उठता है, "देखो दीदी, अंकल चिप्स..टीवी में भी आ रहा है।"

Wednesday 24 November 2010

वन्या का खजाना


वन्या मानती है कि भूत-प्रेत जैसी कोई चीज़ नहीं होती क्योंकि बिना यह बात समझाए उसे हिंदी और अंग्रेज़ी की कई क्लासिक कहानियां सुना पाना मुश्किल होता। हालांकि परियों और जिन्नों के बारे में भी उसे यही बात बताई गई थी लेकिन उनका अस्तित्व न होने की बात पर वन्या पूरा विश्वास नहीं करती। उसे ज़मीन के नीचे खजाने छुपे होने पर भी पर भरोसा है।
एक दिन जब वह स्कूल लौटी तो उसके चेहरे पर वह विशेष भाव था जो अक्सर होता है और जिसका मतलब होता है कि उसके पास बताने के लिए बहुत जबरदस्त खबर है। मैंने भी अपेक्षित उतावली दिखाते हुए मनुहार की कि, "प्लीज़ बता न क्या बात है?"
काश कि मैं उस समय उसके चेहरे पर खुशी और उत्तेजना के उन भावों को शब्दों से समझा पाती!! "मम्मा, पता है आज मुझे खज़ाना मिला।
यानी मेरा अंदाज़ा बिल्कुल ठीक था, खबर सचमुच बहुत बड़ी थी। इसे पूरी संज़ीदगी के साथ सुना जाना था और मैंने अपनी छोटी आंखों को जितना कर सकती थी बड़ा करते हुए पूछा, "खजाना....? कहां?"
"स्कूल में, हमारी क्यारी में," वन्या ने जवाब दिया। "आज न हमारी निराई-गुड़ाई की क्लास थी, मैं अपनी क्यारी से घास निकाल रही थी तो मुझे उसके नीचे दबे खजाने से चार मोती मिले।" फिर थोड़ा रुक कर कुछ सोचते हुए उसने आगे कहा, "मतलब तीन मोती थे और एक बटन था।" कहीं यह बात मेरी नज़र में खज़ाने का मोल कम न कर दे इसलिए उसने जोर देते हुए कहा, "लेकिन वह बटन बहुत चमकीला था सोने जैसा।"
मेरे चेहरे पर खुशी मिश्रित आश्चर्य का भाव अब तक उसी तरह से चिपका था। अब वन्या ने थोड़ा मुंह लटकाते हुए कहा, "लेकिन वो बटन हर्ष ने ले लिया, वो कह रहा था कि वो उसकी जैकेट का है जो गिर कर खो गया था।" बटन हाथ से निकल जाने का दुख पल भर में बिसराते हुए वन्या हंसी उड़ाती हुई आवाज़ में बोली, "मैंने आद्या को बताया तो वो भी अपनी क्यारी खोदने लगी। खोदती रही...खोदती रही लेकिन उसको बस एक टूटा मोती मिला।"
अपने एकालाप को रोक कर अब उसने इस पूरे प्रकरण पर मेरी प्रतिक्रिया जानने के लिए अब मेरी ओर रुख किया। मैंने तुरंत परम जिज्ञासा के साथ सवाल किया, "लेकिन तुमने उस खजाने का क्या किया?"
"मैंने पूरा खज़ाना खोदा नहीं, क्योंकि फिर सबको पता चल जाता। मैंने सारे मोती वहीं मिट्टी में दबा दिए और उसके ऊपर एक सफेद पत्थर रख दिए ताकि अगली बार आसानी से मुझे वह जगह मिल जाए।" वन्या ने निश्चिंतता से जवाब दिया। " लेकिन तुम उस खज़ाने का करोगी क्या?"
" कुछ भी कर सकती हूं, माला बनानी होगी तो वहीं से मोती ले सकती हूं या आद्या, मेघा, पारुल वगैरह के लिए भी माला बना सकती हूं.....वन्या ने इस सबसे फालतू सवाल बिना कुछ सोचे एक लापरवाह सा जवाब दे कर मुझे लाजवाब कर दिया।
ऐसे ही एक बार हमारे यहां रुकी एक अमेरिकी विद्यार्थी ने वन्या को एक छोटा सा चमकीला कांच का टुकड़ा देते हुए कहा कि यह तुम्हारा लकी चार्म है। वन्या ने मुझसे मतलब पूछा तो मैंने ऐसे ही कह दिया कि इससे जादू होता है। बात आई-गई हो गई। कुछ दिनों बाद वन्या नीचे से भागती-हांफती आई और बहुत खुफिया तरीके से फुसफुसाते हुए बोली, "अम्मा, आपने सही कहा था वो जादू वाला कांच है।" मुझे कुछ हवा नहीं थी कि किस बारे में बात हो रही है लेकिन इस बात को ज़ाहिर करना वन्या को नाराज़ करने का सबब बन सकता था, इसलिए मैंने चेहरे पर "देखा मैंने कहा था ना" वाला भाव लाते हुए बत्तीसी दिखा दी।
"पता है क्या हुआ... मैंने कागज को जो नाव बनाई थी वो मैंने इस वाली पॉकेट में डाली थी, इसी में जादू वाला कांच भी था। लेकिन जब मैं नीचे खेल रही थी मैंने पॉकेट में हाथ डाल कर देखा तो वो कांच दूसरे वाली पॉकेट में पहुंच चुका था। हुआ न जादू!! और क्या... भला इससे बड़ा जादू कुछ हो सकता है भला?
मैं पूरी शिद्दत के साथ चाहा कि बच्चों में यह मासूमियत और छोटी-छोटी चीज़ों में चमत्कारिक खुशियां खोज निकालने की उनकी काबिलियत हमेशा बने रहे,परियों में, जादू में और मिट्टी में दबे खजानों पर उनका भरोसा हमेशा बना रहे।

Wednesday 20 October 2010

स्पेनिश नाम!!


वन्या ने बहुत जल्दी ही अक्षरों के साथ जान-पहचान कर ली थी जबकि अरण्य जी जो इस दिसंबर 15 को तीन साल के हो जाएंगे शुरुआती अक्षर ज्ञान के प्रति कोई रुचि जाहिर नहीं की है। अलबत्ता किताबों से उन्हें बेइंतिहां प्यार है। जब देखो तब कोई न कोई किताब ले कर पहुंच जाता है कि, "ये वाली बुक पला दो" और उसके बाद पालथी मार कर बैठ कर शुरुआती पंक्ति भी खुद ही बोल देता है, "हां तो एक बाल की बात है कि...अब पलाओ क्या होता है...।"


कुछ दिन पहले वन्या की चित्रों वाली एक भारी बड़ी सी किताब ले आया और बोला, "अम्मां, इछमें भौत अच्छी कहानी होती है, मुझे पला दो।" अब ऐसे में तो बचने का कोई सवाल ही नहीं होता तो हमने वह किताब पढ़नी शुरु कर दी। उस किताब में सुंदर चित्र बने थे जिनके नाम अंग्रेजी के अलावा फ्रेंच, स्पेनिश वगैरह भाषाओं में भी दिए गए थे।

मैंने अरु को हंसाने के लिहाज से अंग्रेज़ी नामों के साथ उनके स्पेनिश नाम मज़ाकिया तरीके से पढ़ने शुरु किए। जैसे ड्रम के लिए स्पेनिश नाम अल टैंबोर, नाव यानि बोट के लिए अल बोटे, सूरज यानि सन के लिए अल सोल वगैरह-वगैरह।

अचानक अरण्य ने मुझे रोकते हुए कहा, "मम्मा, पटा है मेला छपेनिश नाम क्या है?" मैंने सवालिया नज़र से उसकी ओर देखते हुए कहा, "क्या है?"
"अल अनिया!"
सुनते ही मेरी हंसी फूट पड़ी। दरअसल अरण्य अपना नाम ऐसे ही बोलता है ‘अलन्या’ तो उसे स्पेनिश में तब्दील करने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई ‘अल’ को अलग किया और उसमें जोड़ दिया ‘अनिया’। बन गया जी अरण्य का स्पेनिश नाम "अल अनिया"।